जिन्दगी छल है प्रकृति निश्छल है हम छल से भी लेते हैं और सीखते हैं निश्छल से भी लेते हैं और सीखते हैं ... फिर हम प्रयोगवादी आदर्शवादी बन जाते हैं ! हम लेते हुए काट-छांट करने लगते हैं छल से देना स्वीकार नहीं होता कृत्रिम निश्छलता से बस अपने फायदे का लेखा-जोखा करते हैं और समाज सुधारक, विचारक बन जाते हैं !
कभी कभी कड़े निर्णय भी लेने पड़ते हैं विरोध के स्वर भी सहने होते हैं निस्वार्थ और विवेक से लिए निर्णय भी कुछ लोगों को आहत कर सकते हैं निर्णय का उचित
अनुचित होना समय ही सिद्ध करता तब तक धैर्य रखना पड़ता है
- राजेन्द्र तेला
जैसे हमारे विचार होते हैं, वैसे ही हमारी शारीरिक स्थिति होती है, अगर हम चाहें कि विचार के विपरीत हमारी शारीरिक स्थिति हो तो ऐसा होना बिल्कुल असंभव है ..........